Monday, March 21, 2011
यात्रा
~मेरा परिचय~
.by Sarkar Haider on Monday, March 21, 2011 at 10:29am.~मेरा परिचय~
सदियों से मैं बहता हूँ
इन झरनों और हवाओं में
रूप मेरा बदलता रहता
जब तब अनगिनत दिशाओं में
मेरा स्वागत करते समय और दिशा
उजाले भी मेरे और काली हर निशा
रूप मेरे बदलते रहते
कभी बच्चा या कभी एक जर्जर बूढा
कभी योध्हा और कभी एक भिक्षु
कभी हूँ नारी तो नर कहीं मैं
हर एक सफ़र पे लेकिन रहता यहीं मैं
कितनी काया बदल दीं मैंने इन सदियों में
अब मुझे खुद याद नहीं
मध्य एशिया का चरवाहा तो किशन भी हूँ मैं
नादिर ओ चंगेज़ जो नाम मेरे तो हूँ अशोक भी मैं
इतिहास की हर घटना कहीं मुझ से जुडी
कभी हसीना ए काबुल या पंजाब दी सोनी कुड़ी
कभी मैं हिटलर तो गांधी कहीं मैं
कभी था मै हाफेज़ कभी खय्याम
तो कहीं था ग़ालिब कहीं शहराम
गोएथे मेरा एक चोला था अलावा काली दास के
इकबाल भी रंग है मेरा सिवाए तुलसीदास के
रंगों से मैं खेला किया हर युग और हर दौर में
अनगिनत देवी देवता खुद मैंने बनाए हर दौर में
बसंत को मैंने जिया कभी अबीर ओ गुलाल में
तो कभी तिल गेहूं सजाये कश्मीरी शाल में
सूरज से गर्मी ली और नाचा चांदनी में
अन सुलझे पहलू निहारे शायरी में या रागिनी में
गाथाएँ जी हैं मैंने मसनवी और पुराण में
तो कभी तलाशी बन्दिगी गीता और कुरान में
कभी दिशा तय की अपनी तलवार से
तो कभी अपने रक्स या कलाम से
अशवाथामा भी मै ही था और सोहराब भी
फिरदौसी भी मै ही था और वेद व्यास भी
पूजा भी गया मैं सूली पे भी हूँ लटकाया गया
तोडा गया मैं और कभी जतनो से जुड़वाया गया
इन सदियों के लम्बे हेर फेर में
इस सूरज और इसी चाँद की दौड़ में
कभी था मैं सूर्यवंशी और कभी चंद्रवंशी
कभी अजंता तराशी कभी सिंध घाटी
कैस्पियन उतरा मै कभी सुएज़ पाटी
गंगा भी नहाया मैं लंका भी बांटी
जब अकेला पड़ गया और कभी डर लगा
भगवान पत्थर के बना डाले
आखिर तो था बस एक इंसान मैं
और इस तरह मैं चलता रहा
अंतहीन और अनजान राहों पर
सफ़र ही मेरा कारक था और येही कारण
मैं हूँ आर्यपुत्र ......!!!
~ होली/ नवरोज़ मुबारक~
सरकार हैदर बरेली २१ मार्च २०११
Colors of Life
.
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Tuesday, February 15, 2011
क़दमों के निशान
मै छोड़ता गया क़दमों के निशान
कया खबर तुझे ज़रुरत हो
अब शाम हो चली घर चलूँ
लौटने का शायद येही महूरत हो
कया खबर तुझे ज़रुरत हो
अब शाम हो चली घर चलूँ
लौटने का शायद येही महूरत हो
Tuesday, February 8, 2011
जिंदिगी तुझको तो बस उड़ता हुआ सा देखा
जिंदिगी तुझको तो बस उड़ता हुआ सा देखा
सिलसिला अक्सों का बस जुड़ता हुआ सा देखा
कीमत बड़ी भारी रही समझ की तेरे दार में दुनिया
के हर साहिब ए कमाल बस कुढ़ता हुआ सा देखा
अब बंद भी करो यह अपना साज़ ए हस्ती हैदर
खुद हमने तुम्हे नशेब में बस मुड़ता हुआ सा देखा
८.२.११- बरेली
Friday, November 19, 2010
Barbaad Lamhe
न हो कहीं हर चीज़ जो ग़ैर ज़रूरी निकले
हमारी जिंदिगी का वही एक महवर निकले
जहाँ वही नदामत की क़दीम असीरी निकले
और मुहर-ए- कंजूसी बड़ी सुखनवर निकले!!!
हमारी जिंदिगी का वही एक महवर निकले
जहाँ वही नदामत की क़दीम असीरी निकले
और मुहर-ए- कंजूसी बड़ी सुखनवर निकले!!!
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Thursday, November 18, 2010
dildari ki qeemat
बेहतर था के दिल अपने पास ही रहा होता
ज़ुल्म रफीकों का फिर क्योंकर सहा होता
बस के जो अफ़साने बिखरे पड़े हैं राहों में
हैदर*-ए-बेदिल के पास भला क्या रहा होता
१८ नवम्बर २०१०
Thursday, October 14, 2010
Behoshi
दफीने सब बुज़ुर्गों के रू पोश हुए जाते हैं
किस्सा-ए-कैस-ओ-फरहाद बेजोश हुए जाते हैं !
शेर-ए-यजदान की हिकायत मै सुनाऊ किसको
अब तो कछुए भी सब खरगोश हुए जाते हैं !
जब बढ़ती है हवाओं की हरारत चहार सिम्त
हम ज़ुल्मतों में मुन्जमिद मदहोश हुए जाते हैं!
होश की अब कौन कहे इस दौर में * हैदर
लो पासबान-ए-हरम सब बेहोश हुए जाते हैं.!!!..१४.१०.१०-
किस्सा-ए-कैस-ओ-फरहाद बेजोश हुए जाते हैं !
शेर-ए-यजदान की हिकायत मै सुनाऊ किसको
अब तो कछुए भी सब खरगोश हुए जाते हैं !
जब बढ़ती है हवाओं की हरारत चहार सिम्त
हम ज़ुल्मतों में मुन्जमिद मदहोश हुए जाते हैं!
होश की अब कौन कहे इस दौर में * हैदर
लो पासबान-ए-हरम सब बेहोश हुए जाते हैं.!!!..१४.१०.१०-
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Saturday, December 12, 2009
doren
फिर कोई पर्त माज़ी की खुल गयी है
उदासी माहोल में फिर घुल गयी है
इस दिल ने दिखाए क्या क्या रंग
आँख लगते ही हर बार खुल गयी है
काले, सफ़ेद, देसी और कभी बिदेसी
गाँठ हर डोर की हर बार खुल गयी है
अजब रहा दरमान-इ- ज़ख्मे दिल
तिशनगी रूह की हर जा मिल गयी है
किस्सा-इ-बहार ख़त्म हो मै भी चलूँ
हैदर* के रूह पेश्तर बू-ए-गुल गयी है.
१२.१२.९
उदासी माहोल में फिर घुल गयी है
इस दिल ने दिखाए क्या क्या रंग
आँख लगते ही हर बार खुल गयी है
काले, सफ़ेद, देसी और कभी बिदेसी
गाँठ हर डोर की हर बार खुल गयी है
अजब रहा दरमान-इ- ज़ख्मे दिल
तिशनगी रूह की हर जा मिल गयी है
किस्सा-इ-बहार ख़त्म हो मै भी चलूँ
हैदर* के रूह पेश्तर बू-ए-गुल गयी है.
१२.१२.९
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